गीता नीति
जीवन की प्रेरणा, भगवद्गीता के सार से
भगवद्गीता श्लोक: अध्याय 2 – सांख्य-योग
भगवद्गीता का दूसरा अध्याय, सांख्य-योग, अर्जुन के विषाद को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण के उपदेशों का प्रारंभ है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण आत्मा की अमरता, कर्मयोग, और स्थिरप्रज्ञता के सिद्धांतों की व्याख्या करते हैं। यह अध्याय गीता के दार्शनिक आधार को स्थापित करता है, जो जीवन के कर्तव्यों और आध्यात्मिक ज्ञान को संतुलित करने का मार्ग दिखाता है। नीचे हम इस अध्याय के प्रमुख श्लोकों को उनके हिंदी अर्थ और व्याख्या के साथ प्रस्तुत करते हैं।
प्रमुख श्लोक: अध्याय 2
श्लोक 11
श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।
अर्थ
श्री भगवान बोले: तुम उन लोगों के लिए शोक कर रहे हो, जिनके लिए शोक करना उचित नहीं है, और फिर भी ज्ञान की बातें करते हो। पंडित लोग न तो जीवितों के लिए और न ही मृतकों के लिए शोक करते हैं।
यह श्लोक गीता के उपदेशों की शुरुआत है, जिसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मा की शाश्वत प्रकृति समझाते हैं, जो शोक और मोह से परे है।
— भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 11
श्लोक 13
देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।
अर्थ
जैसे इस देह में देहधारी आत्मा के लिए बाल्यावस्था, यौवन और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही आत्मा को दूसरा शरीर प्राप्त होता है। धीर पुरुष इस बात से मोहित नहीं होता।
यह श्लोक आत्मा के शरीर परिवर्तन को जन्म-मृत्यु के चक्र के रूप में समझाता है, जो हमें मृत्यु के भय से मुक्त करता है।
— भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 13
श्लोक 20
न जायते म्रियते वा कदाचिन्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
अर्थ
आत्मा न कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है। यह न तो कभी उत्पन्न हुई है, न होगी। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मरती।
यह श्लोक आत्मा की अविनाशी प्रकृति पर बल देता है, जो गीता के ज्ञानयोग का आधार है।
— भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 20
श्लोक 23
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषति मारुतः।।
अर्थ
आत्मा को न शस्त्र काट सकते, न आग जला सकती, न जल गीला कर सकता, और न वायु सुखा सकती।
यह श्लोक आत्मा की अक्षय और अविनाशी प्रकृति को और स्पष्ट करता है, जो हमें भौतिक संसार के परिवर्तनों से परे देखने की प्रेरणा देता है।
— भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 23
श्लोक 38
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।
अर्थ
सुख-दुख, लाभ-हानि, और जय-पराजय को समान समझकर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। ऐसा करने से तुम पाप नहीं कमाओगे।
यह श्लोक समता के महत्व को दर्शाता है, जो कर्मयोग का एक प्रमुख सिद्धांत है।
— भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 38
श्लोक 47
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।
अर्थ
तुम्हारा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए न तो कर्म के फल की इच्छा करो और न ही कर्म न करने का संकल्प लो।
यह गीता का सबसे प्रसिद्ध श्लोक है, जो कर्मयोग का मूल सिद्धांत बताता है—निःस्वार्थ कर्म और फलासक्ति से मुक्ति।
— भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 47
श्लोक 55
श्री भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
अर्थ
श्री भगवान बोले: हे पार्थ, जब मनुष्य मन में उत्पन्न होने वाली सभी कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा में ही आत्मा से संतुष्ट रहता है, तब वह स्थिरप्रज्ञ कहलाता है।
यह श्लोक स्थिरप्रज्ञ (स्थितप्रज्ञ) व्यक्ति के लक्षणों को बताता है, जो आध्यात्मिक ज्ञान का शिखर है।
— भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 55
श्लोक 71
विहाय कामान् यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः।
नर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति।।
अर्थ
जो व्यक्ति सभी कामनाओं को त्यागकर निःस्पृह, ममता-रहित, और अहंकार-रहित होकर जीवन जीता है, वह शांति प्राप्त करता है।
यह श्लोक वैराग्य और शांति के मार्ग को दर्शाता है, जो आत्मज्ञान का परिणाम है।
— भगवद्गीता, अध्याय 2, श्लोक 71
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