श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय ३: कर्म योग

श्रीमद्भगवद्गीता – अध्याय ३: कर्म योग

यहाँ भगवद्गीता के तृतीय अध्याय के सभी ४३ श्लोक संस्कृत में और उनके अर्थ हिंदी में प्रस्तुत किए गए हैं।

श्लोक १
अर्जुन उवाच:
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥
अर्जुन ने कहा: हे जनार्दन! यदि आप बुद्धि को कर्म से श्रेष्ठ मानते हैं, तो फिर मुझे इस भयंकर कर्म में क्यों नियुक्त करते हैं, हे केशव?

श्लोक २
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्॥
आपके मिश्रित-से वचनों से मेरी बुद्धि मोहित-सी हो रही है। अतः निश्चित रूप से एक बात कहें, जिससे मैं कल्याण प्राप्त कर सकूँ।

श्लोक ३
श्री भगवानुवाच:
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥
श्री भगवान ने कहा: हे निष्पाप! इस लोक में मैंने पहले दो प्रकार की निष्ठाएँ बताई हैं—सांख्यियों के लिए ज्ञानयोग और योगियों के लिए कर्मयोग।

श्लोक ४
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यासमात्रेण सिद्धिं समधिगच्छति॥
न कर्मों का आरम्भ न करने से मनुष्य नैष्कर्म्य प्राप्त करता है, और न ही केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त करता है।

श्लोक ५
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥
कोई भी मनुष्य क्षणभर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। सभी प्रकृति से उत्पन्न गुणों के द्वारा अवश होकर कर्म करने को बाध्य हैं।

श्लोक ६
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥
जो मनुष्य कर्मेन्द्रियों को संयमित करके मन से इन्द्रिय विषयों का स्मरण करता है, वह मूढ़ात्मा मिथ्याचारी कहलाता है।

श्लोक ७
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥
किन्तु, हे अर्जुन! जो मन से इन्द्रियों को वश में करके कर्मेन्द्रियों से आसक्ति रहित होकर कर्मयोग का आचरण करता है, वह श्रेष्ठ है।

श्लोक ८
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः॥
तुम नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने से कर्म श्रेष्ठ है। कर्म के बिना तो तुम्हारी शारीरिक यात्रा भी सिद्ध नहीं होगी।

श्लोक ९
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥
यज्ञ के लिए किए गए कर्म को छोड़कर अन्य कर्मों से यह संसार बंधन में पड़ता है। इसलिए, हे कुन्तीपुत्र! यज्ञ के लिए आसक्ति रहित होकर कर्म करो।

श्लोक १०
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥
प्रजापति ने प्रजाओं को यज्ञ के साथ सृष्टि करके पहले कहा: इससे तुम वृद्धि को प्राप्त करो; यह तुम्हारी इच्छित कामनाओं को पूर्ण करने वाला हो।

श्लोक ११
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥
तुम इस यज्ञ से देवताओं का पोषण करो और वे देवता तुम्हारा पोषण करें। इस प्रकार एक-दूसरे का पोषण करके तुम परम कल्याण प्राप्त करोगे।

श्लोक १२
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः॥
यज्ञ से पोषित देवता तुम्हें इच्छित भोग प्रदान करेंगे। उनके द्वारा दिए गए भोगों को बिना उन्हें वापस दिए भोगने वाला चोर है।

श्लोक १३
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥
जो सन्त यज्ञ के शेष अन्न को खाते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। किन्तु जो केवल अपने लिए भोजन पकाते हैं, वे पाप ही भोगते हैं।

श्लोक १४
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥
प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से होता है, वर्षा यज्ञ से होती है, और यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होता है।

श्लोक १५
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥
कर्म वेदों से उत्पन्न होता है और वेद अक्षर (परमात्मा) से उत्पन्न हैं। इसलिए सर्वव्यापी ब्रह्म नित्य यज्ञ में प्रतिष्ठित है।

श्लोक १६
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥
हे पार्थ! जो इस प्रकार प्रवर्तित चक्र का अनुसरण नहीं करता, वह पापमय जीवन जीने वाला और इन्द्रियों में रमण करने वाला व्यर्थ जीता है।

श्लोक १७
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥
जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला, आत्मा में तृप्त और आत्मा में ही संतुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।

श्लोक १८
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥
उसके लिए न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन है और न ही कर्म न करने से। न ही वह किसी प्राणी पर किसी प्रयोजन के लिए निर्भर है।

श्लोक १९
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः॥
इसलिए सदा आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म का आचरण करो। आसक्ति रहित कर्म करने वाला पुरुष परम को प्राप्त करता है।

श्लोक २०
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि॥
जनक आदि ने केवल कर्म द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की थी। तुम्हें भी लोकसंग्रह के लिए कर्म करना चाहिए।

श्लोक २१
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तति॥
श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, वही-वही अन्य लोग भी करते हैं। वह जो प्रमाण स्थापित करता है, लोक उसी का अनुसरण करता है।

श्लोक २२
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
हे पार्थ! तीनों लोकों में मेरा कोई कर्तव्य नहीं है, न कुछ प्राप्त करने योग्य है और न ही अप्राप्त है। फिर भी मैं कर्म में संलग्न हूँ।

श्लोक २३
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
यदि मैं सदा कर्म में तत्पर न रहूँ, तो हे पार्थ! लोग सभी प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करेंगे।

श्लोक २४
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥
यदि मैं कर्म न करूँ, तो ये लोक नष्ट हो जाएँगे और मैं संकर (वर्णसंकर) का कर्ता बनूँगा, जिससे इन प्रजाओं का नाश होगा।

श्लोक २५
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्यन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्॥
हे भारत! जैसे अज्ञानी लोग आसक्ति के साथ कर्म करते हैं, वैसे ही विद्वान को लोकसंग्रह की इच्छा से आसक्ति रहित होकर कर्म करना चाहिए।

श्लोक २६
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वमकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्॥
विद्वान को कर्म में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में भेद नहीं पैदा करना चाहिए, बल्कि युक्त होकर सभी कर्मों को प्रेरित करना चाहिए।

श्लोक २७
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥
सभी कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं, किन्तु अहंकार से मोहित आत्मा स्वयं को कर्ता मानता है।

श्लोक २८
तत्त्ववित् तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जति॥
हे महाबाहो! जो तत्त्वज्ञानी गुणों और कर्मों के विभाग को जानता है, वह यह समझकर कि गुण ही गुणों में कार्य करते हैं, उनमें नहीं फँसता।

श्लोक २९
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ति गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्॥
प्रकृति के गुणों से मोहित लोग गुणों और कर्मों में आसक्त हो जाते हैं। पूर्ण ज्ञानी को अज्ञानियों को विचलित नहीं करना चाहिए।

श्लोक ३०
मयि सर्वं समर्प्य कर्माणि संन्यास्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥
सभी कर्मों को मुझ में समर्पित करके, आत्मचेतना के साथ संन्यास करके, आशा और ममता से रहित होकर बिना ज्वर (चिन्ता) के युद्ध करो।

श्लोक ३१
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः॥
जो मनुष्य मेरे इस मत का नित्य अनुसरण करते हैं, श्रद्धावान और दोषदृष्टि से रहित होकर, वे भी कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।

श्लोक ३२
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥
किन्तु जो मेरे इस मत का दोष देखते हैं और इसका पालन नहीं करते, उन सर्वज्ञान से मोहित और अचेतन लोगों को नष्ट समझो।

श्लोक ३३
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥
ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है। सभी प्राणी अपनी प्रकृति की ओर जाते हैं। निग्रह (दमन) क्या करेगा?

श्लोक ३४
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥
इन्द्रियों के प्रत्येक विषय में राग और द्वेष निश्चित रूप से रहते हैं। उनके वश में नहीं आना चाहिए, क्योंकि वे उसके (मनुष्य के) शत्रु हैं।

श्लोक ३५
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥
गुणरहित स्वधर्म भी अच्छी तरह से किए गए परधर्म से श्रेष्ठ है। स्वधर्म में मरना श्रेयस्कर है, परधर्म भयावह है।

श्लोक ३६
अर्जुन उवाच:
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥
अर्जुन ने कहा: हे वार्ष्णेय! फिर यह पुरुष अनिच्छा होने पर भी किसके द्वारा प्रेरित होकर बलपूर्वक पाप करता है?

श्लोक ३७
श्री भगवानुवाच:
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥
श्री भगवान ने कहा: यह कामना और क्रोध, जो रजोगुण से उत्पन्न होते हैं, महान भक्षक और महान पापी हैं। इसे इस लोक में शत्रु समझो।

श्लोक ३८
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्॥
जैसे अग्नि धुएँ से, दर्पण धूल से और गर्भ जेर से ढका रहता है, वैसे ही यह (आत्मा) कामना से ढका हुआ है।

श्लोक ३९
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥
हे कुन्तीपुत्र! ज्ञानी का ज्ञान इस नित्य शत्रु कामना के रूप से, जो कभी तृप्त न होने वाली अग्नि है, ढका हुआ है।

श्लोक ४०
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहति एष ज्ञानमावृत्य देहिनम्॥
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि इस (काम) के आधार कहे जाते हैं। यह इनके द्वारा ज्ञान को ढककर देहधारी को मोहित करता है।

श्लोक ४१
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्॥
इसलिए, हे भरतश्रेष्ठ! तुम पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले पापी (काम) को नष्ट करो।

श्लोक ४२
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥
इन्द्रियाँ श्रेष्ठ कही जाती हैं, इन्द्रियों से श्रेष्ठ मन है, मन से श्रेष्ठ बुद्धि है, और बुद्धि से भी परे वह (आत्मा) है।

श्लोक ४३
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्॥
इस प्रकार बुद्धि से परे आत्मा को जानकर, आत्मा द्वारा आत्मा को स्थिर करके, हे महाबाहो! इस दुरासद कामरूपी शत्रु को नष्ट करो।

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